भारत में मानवाधिकार (Human Rights in India)
भारत में मानवाधिकार (Human Rights in India)
मानव अधिकार आयोग की स्थापना 2 अक्टूबर 1993 में हुई। जिसके उद्देश्य नौकरशाही पर रोक लगाना, मानव अधिकारों के हनन को रोकना तथा लोक सेवक द्वारा उनका शोषण करने में अंकुश लगाना। मानवाधिकार की सुरक्षा के बिना सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आज़ादी खोखली है मानवाधिकार की लड़ाई हम सभी की लड़ाई है। विश्वभर में नस्ल, धर्म, जाति के नाम मानव द्वारा मानव का शोषण हो रहा है। अत्याचार एवम जुल्म के पहाड़ तोड़े जा रहे हैं। हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् धर्म एवम जाति के नाम पर भारतवासियों को विभाजित करने का प्रयास किया जा रहा है। आदमी गौर हो या काला, हिन्दू हो या मुस्लमान, सिख हो या ईसाई, हिंदी बोले या कोई अन्य भाषा सभी केवल इंसान हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित मानवाधिकारों को प्राप्त करने का अधिकार है। मानव अधिकार का मतलब ऐसे हक़ जो हमारे जीवन और मान-सम्मान से जुड़े हैं। ये हक़ हमें जन्म से मिलते हैं, हम सब आज़ाद हैं। साफ़ सुथरे माहौल मैं रहना हमारा हक़ है । हमें इलाज़ की अच्छी सहूलियत मिले। हमें और हमारे बच्चों को पढाई-लिखाई की अच्छी सहूलियत मिले। पीने का पानी साफ मिले। जाति, धर्म, भाषा-बोली के कारण हमारे साथ भेदभाव न हो। हमें हक़ है की हम सम्मान के साथ रहें। कोई हमें अपना दस या गुलाम नहीं बना सके। प्रदेश में हम कहीं भी बेरोकटोक आना-जाना कर सकते हैं। हम बेरोकटोक बोल सकते हैं, लेकिन हमारे बोलने से किसी के मान-सम्मान को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। हमें आराम करने का अधिकार है। हमें यह तय करने का अधिकार है की हमारे बच्चे को किस तरह की शिक्षा मिले। हर बच्चे को जीने का अधिकार है, उसे अच्छी तरह की शिक्षा मिले। यदि हमें हमारा हक़ दिलाने मैं सरकारी महकमा हमारी मदद नहीं कर रहा है तो हम मानव अधिकार आयोग में शिकायत कर सकते हैं। आयोग में सीधे अर्जी देकर शिकायत कर सकते हैं।इसके लिए वकील की जरूरत नहीं है। शिकायत किसी भी भाषा या बोली में कर सकते हैं हिंदी में हो तो अच्छा है। शिकायत लिखने के लिए कैसे भी कागज़ का इस्तेमाल करें, स्टैम्प पेपर की कोई जरूरत नहीं होती। आयोग के दफ्तर में टेलीफोन नम्बर पर भी शिकायत दर्ज कर सकते हैं।
मानव अधिकार
एनडी मानवाधिकार मनुष्य के वे मूलभूत सार्वभौमिक अधिकार हैं, जिनसे मनुष्य को नस्ल, जाति, राष्ट्रीयता, धर्म, लिंग आदि किसी भी दूसरे कारक के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता।
1829 – राजा राममोहन राय द्वारा चलाए गए हिन्दू सुधार आंदोलन के बाद भारत में ब्रिटिश राज के दौरान सती प्रथा को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया।
1929 – नाबालिगों को शादी से बचाने के लिए बाल विवाह निरोधक कानून पास हुआ।
1947 – ब्रिटिश राज की गुलामी से भारतीय जनता को आजादी मिली।
1950 – भारतीय गणतंत्र का संविधान लागू हुआ।
1955 – भारतीय परिवार कानून में सुधार। हिन्दू महिलाओं को मिले और ज्यादा अधिकार।
1973 – केशवानंद भारती वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि संविधान संशोधन द्वारा संविधान के मूलभूत ढाँचे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। (जिसमें संविधान द्वारा प्रदत्त कई मूल अधिकार भी शामिल हैं)
1989 – अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों से सुरक्षा) एक्ट 1989 पास हुआ।
1992 – संविधान में संशोधन के जरिए पंचायत राज की स्थापना, जिसमें महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण लागू हुआ। अजा-अजजा के लिए भी समान रूप से आरक्षण लागू।
1993 – प्रोटेक्शन ऑफ मून राइट्स एक्ट के तहत राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की स्थापना।
2001 – खाद्य अधिकारों को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अतिरिक्त आदेश पास किया।
2005 – सूचना का अधिकार कानून पास।
2005 – रोजगार की समस्या हल करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट पास।
2005 – भारतीय पुलिस के कमजोर मानव अधिकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के निर्देश दिए।
मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा
10 दिसंबर 1948 को यूनाइटेड नेशन्स की जनरल एसेम्बली ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत और घोषित किया। इस ऐतिहासिक कार्य के बाद ही एसेम्बली ने सभी सदस्य देशों से अपील की कि वे इस घोषणा का प्रचार करें और देशों या प्रदेशों की राजनीतिक स्थिति पर आधारित भेदभाव का विचार किए बिना विशेषतः स्कूलों और अन्य शिक्षा संस्थाओं में इसके प्रचार, प्रदर्शन और व्याख्या का प्रबंध करें। इस घोषणा में न सिर्फ मनुष्य जाति के अधिकारों को बढ़ाया गया बल्कि स्त्री और पुरुषों को भी समान अधिकार दिए गए। मानव अधिकार से तात्पर्य उन सभी अधिकारों से है जो व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता एवं प्रतिश्ठा से जुड़े हुए हैं। यह अधिकार भारतीय संविधान के भाग-तीन में मूलभूत अधिकारों के नाम से वर्णित किये गये हैं और न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है । इसके अलावा ऐसे अधिकार जो अंतर्राष्ट्रीय समझौते के फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा स्वीकार किये गये है और देष के न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है, को मानव अधिकार माना जाता है । इन अधिकारों में प्रदूशण मुक्त वातावरण में जीने का अधिकार, अभिरक्षा में यातनापूर्ण और अपमानजनक व्यवहार न होने संबंधी अधिकार, और महिलाओं के साथ प्रतिश्ठापूर्ण व्यवहार का अधिकार शामिल है।
जांच कार्य से संबंधित प्राप्त अधिकार
अधिनियम के अन्तर्गत किसी शिकायत की जांच करते समय आयोग को सिविल प्रक्रिया संहिता-1908 के अन्तर्गत सिविल न्यायालय के समस्त अधिकार प्राप्त हैं। विषेश रूप से संबंधित पक्ष को तथा गवाहों को सम्मन जारी करके बुलाने तथा उन्हें आयोग के सामने उपस्थित होने के लिए बाध्य करने एवं शपथ देकर परीक्षण करने का अधिकार, किसी दस्तावेज का पता लगाने और उसको प्रस्तुत करने का आदेष देने का अधिकार, षपथ पर गवाही लेने का अधिकार और किसी न्यायालय अथवा कार्यालय से कोई सरकारी अभिलेख अथवा उसकी प्रतिलिपि की मांग करने का अधिकार। गवाहियों तथा दस्तावेजों की जांच हेतु कमीशन जारी करने का अधिकार। आयोग में पुलिस अनुसंधान दल भी है। जिसके द्वारा प्रकरणों की जांच की जाती है।
आयोग का कार्य
मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम-1993 के अन्तर्गत मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग के द्वारा निम्नलिखित कार्य किये जाएंगें-
आयोग अपनी ओर से स्वयं अथवा पीड़ि़त द्वारा अथवा उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रार्थना पत्र देकर शिकायत करने पर कि, किसी शसकीय सेवक द्वारा मानव अधिकारों का हनन किया गया है अथवा ऐसा करने के लिये उकसाया गया है अथवा उसने ऐसा हनन रोकने की उपेक्षा किया है, तो ऐसी षिकायतों की जांच करना।
किसी न्यायालय में विचारधीन मानव अधिकारों के हनन के मामले में संबंधित न्यायालय के अनुमोदन से ऐसे मामले की कार्यवाही में भाग लेगा।
राज्य सरकार को सूचित करके, किसी जेल अथवा राज्य सरकार के नियंत्रणाधीन किसी ऐसे संस्थान का जहाँ लोगों को चिकित्सा सुधार अथवा सुरक्षा हेतु ठहराया जाता है वहां के निवासियों की आवासीय दशओं का अध्ययन करने के लिये निरीक्षण करना और उनके बारें में अपने सुझाव देना।
संविधान तथा अन्य किसी कानून द्वारा मानव अधिकारों के संरक्षण के लिये प्रदत्त रक्षा उपायों की समीक्षा करना और उनके प्रभावी कार्यान्वयन के संबंध में सुझाव देना।
आतंवाद एवं ऐसे सारे क्रिया-कलापों की समीक्षा करना, जो मानव अधिकारों का उपभोग करने में बाधा डालते हैं तथा उनके निवारण के लिए उपाय सुझाना।
मानव अधिकारों से संबंधित अनुसंधान कार्य को अपने हाथ में लेना एवं उसे बढ़ावा देना।
समाज के विभिन्न वर्गों में मानव अधिकार संबंधी शिक्षा का प्रसार करना तथा प्रकाशनों, संचार माध्यमों एवं संगोश्ठियों और अन्य उपलब्ध साधनों द्वारा मानव अधिकार संबंधी रक्षा उपायों के प्रति जागरूकता लाना।
मानव अधिकारों की रक्षा करने या करवाने के क्षेत्र में क्रियाशील गैर सरकारी संगठनों तथा संस्थाओं के प्रयासों को प्रोत्साहन देना।
मानव अधिकारों की समुन्नति के लिये आवष्यक समझे गये अन्य कार्य करना।
मानव अधिकार सभी मनुष्यों के लिए निहित अधिकार है, जो कुछ भी हमारी राष्ट्रीयता, निवास की जगह, लिंग, राष्ट्रीय या जातीय मूल, रंग, धर्म, भाषा, या किसी अन्य स्थिति. हम सभी बिना किसी भेदभाव के समान रूप से कर रहे हैं हमारे मानव अधिकारों के लिए हकदार है । ये अधिकार सभी interrelated, अन्योन्याश्रित और अविभाज्य है।
यूनिवर्सल मानव अधिकारों अक्सर व्यक्त कर रहे हैं और संधियों, प्रथागत अंतरराष्ट्रीय कानून, सामान्य सिद्धांतों और अंतरराष्ट्रीय कानून के अन्य स्रोतों के रूप में कानून द्वारा की गारंटी है। अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून नीचे देता सरकारों के दायित्वों को कुछ मायनों में कार्य किया जा रहा है या कुछ कृत्यों से बचना, आदेश को बढ़ावा देने के लिए और व्यक्तियों या समूहों के मानव अधिकार और मौलिक स्वतंत्रता की रक्षा।
यूनिवर्सल और अविच्छेद्य
मानव अधिकारों की सार्वभौमिकता के सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून की आधारशिला है। यह सिद्धांत, के रूप में पहली बार 1948 में मानवाधिकार पर सार्वभौम घोषणा में बल दिया है, कई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलनों, घोषणाओं, और प्रस्तावों में दोहराया है। मानव अधिकारों पर 1993 वियना विश्व सम्मेलन, उदाहरण के लिए, ने कहा कि यह राज्य का कर्तव्य को बढ़ावा देने और सभी मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए, उनके राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रणालियों की परवाह किए बिना।
सभी राज्यों में कम से कम एक की पुष्टि की है, और राज्य अमेरिका के 80% चार या अधिक कोर मानवाधिकार संधियों की पुष्टि की है, जो उनके लिए कानूनी दायित्वों बनाता है और सार्वभौमिकता ठोस अभिव्यक्ति देने के राज्यों की सहमति को दर्शाती है. कुछ मौलिक मानवाधिकारों मानदंडों सभी सीमाओं और सभ्यताओं में प्रथागत अंतरराष्ट्रीय कानून द्वारा सार्वभौमिक संरक्षण का आनंद लें। मानव अधिकार अपरिहार्य हैं। वे दूर नहीं लिया होना चाहिए, विशेष परिस्थितियों में छोड़कर और कारण प्रक्रिया के अनुसार। उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता के अधिकार यदि एक व्यक्ति को कानून की एक अदालत द्वारा एक अपराध का दोषी पाया जाता है प्रतिबंधित किया जा सकता है।
अन्योन्याश्रित और अविभाज्य
सभी मानव अधिकारों अविभाज्य हैं, चाहे वे जीवन के लिए ठीक है, समानता के रूप में इस तरह के नागरिक और राजनीतिक अधिकार, कानून और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, काम अधिकार, सामाजिक सुरक्षा और शिक्षा, जैसे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से पहले, विकास और आत्मनिर्णय के अधिकार के रूप में इस तरह के सामूहिक अधिकार, अविभाज्य, interrelated और अन्योन्याश्रित हैं। एक अधिकार के सुधार दूसरों की उन्नति की सुविधा. इसी तरह, एक अधिकार के अभाव पर प्रतिकूल दूसरों को प्रभावित करता है।
समान और गैर भेदभावपूर्ण
यूनिसेफ तस्वीर गैर भेदभाव अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून के पार काटने में एक सिद्धांत है। सिद्धांत सभी प्रमुख मानवाधिकार संधियों में मौजूद है और महिलाओं के खिलाफ नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन और भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अभिसमय के रूप में इस तरह के अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार सम्मेलनों के कुछ केंद्रीय विषय प्रदान करता है।
सिद्धांत सभी मानव अधिकारों और स्वतंत्रता के संबंध में हर किसी के लिए लागू होता है और यह लिंग, जाति, रंग, और इतने पर जैसे गैर संपूर्ण श्रेणियों की एक सूची के आधार पर भेदभाव है. गैर भेदभाव के सिद्धांत समानता के सिद्धांत से पूरित है, के रूप में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 1 में कहा गया है: “सभी मनुष्य स्वतंत्र और गरिमा और अधिकारों में बराबर पैदा कर रहे हैं।”
दोनों अधिकारों और दायित्वों
मानव अधिकारों के अधिकारों और दायित्वों दोनों पड़ेगा। राज्य सम्मान के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत दायित्वों और कर्तव्यों को लगता है, रक्षा के लिए और मानव अधिकारों को पूरा। दायित्व का सम्मान करने के लिए इसका मतलब है कि राज्य के साथ हस्तक्षेप या मानव अधिकारों का आनंद कटौती से बचना चाहिए। रक्षा दायित्व राज्यों व्यक्तियों, समूहों और मानव अधिकारों के हनन के खिलाफ की रक्षा करने की आवश्यकता है। दायित्व को पूरा करने के लिए इसका मतलब है कि राज्य सकारात्मक कार्रवाई करने के लिए बुनियादी मानव अधिकारों के आनंद की सुविधा चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर, जब तक हम अपने मानव अधिकारों के हकदार हैं, तो हम भी दूसरों के मानव अधिकारों का सम्मान करना चाहिए।
मनुष्य योनि में जन्म लेने के साथ मिलने वाला प्रत्येक अधिकार ‘मानवाधिकार’ का श्रेणी में आता है। संविधान में बनाये गये अधिकारों से कहीं बढ़कर महत्व ‘मानवाधिकारों’ का माना जा सकता है।
कारण यह कि ये ऐसे अधिकार है जो सीधे सीधे प्रकृति से संबंध रखते है। मसलन जीने का अधिकार, कोई कानून सम्मत अधिकार नहीं, वरन समाज के हर वर्ग को प्रकृति द्वारा समान रूप से प्रदान किया गया है। दूसरे रूप में हम यह भी कह सकते है कि प्रकृति के अलावा मनुष्यों द्वारा बनाये गये विधि सम्मत कानून का भी यही कर्तव्य है कि वह ‘मानवाधिकारों’ की रक्षा करें। हम यह देख रहे है कि हमारे इसी मानवीय समाज में ‘मानवाधिकारों’ का भय आम लोगों पर विशेष रूप से दिखाई नहीं पड़ रही है। प्रत्यक्ष उदाहरण के तौर पर हम आये दिन होने वाले महिला प्रताड़ना मामलों को ले सकते है। हमारे सांस्कृतिक सभ्यता वाले महान देश में प्रतिदिन हजारों कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं हमारी संस्कृति को तार-तार कर रही है। इतना ही नहीं इस मानवीय समाज को रचने वाली नारियां भी लाखों की संख्या में दहेज की बलिवेदी पर चढ़ायी जा रही है। महिलाओं के यौन शोषण मामलों में वृद्धि के साथ ही साथ कम उम्र की बालिकाओं को समय से पूर्व अवैध मातृत्व के कारण आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ रहा है। इतना कुछ होने के बाद भी हम ‘मानवाधिकार’ कानून की दुहाई देते नहीं थक रहे है। सच्चाई की धरातल पर खड़े हम ऐसे ही अपराधों पर नियंत्रण के लिए ‘मानवाधिकार’ के रक्षकों से केवल गुहार ही लगा पा रहे है।
10 दिसंबर सन् 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा अस्तित्व में लाये गये ‘मानवाधिकार’ ने अब तक 67 वर्ष की यात्रा पूरी कर ली है। इन अधिकारों के जन्म लेने के साथ ही इसमें शामिल सदस्यों का यह कर्तव्य बन गया है कि वे ‘मानवाधिकारों’ का संरक्षण और उनकी देखभाल करें। वास्तव में देखा जाये तो मानवीय जीवन और अधिकार की रक्षा उस देश के ‘मानवाधिकार’ कानूनों के लिए गौरवान्वित करने वाली बात होती है। वर्तमान में हमारे देश में ‘मानवाधिकारों’ की स्थिति वास्तव में जटिलता में देखी जा रही है। ‘मानवाधिकारों’ की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसका हनन राजनैतिक कारणों के अतिरिक्त धार्मिक मुद्दों पर भी किया जा रहा है। धर्म एक ऐसा मार्ग है जो प्रत्येक जाति वर्ग को प्रेम और स्नेह से रहना सिखाता है। आज उसी धर्म के नाम पर कट्टरता का प्रचार प्रसार करते हुए हिंसा के कारण लोग बेवजह मारे जा रहे है। ‘मानवाधिकारों’ से भारतवर्ष का नाता बहुत पुराना है। हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को अपना सूत्र वाक्य मानते है। संपूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है जिसने दुनिया को ‘जीयो और जीने दो’ का आदर्श वाक्य देते हुए आपसी प्रेम स्नेह का संचार करने में बड़ी भूमिका का निर्वहन किया है।
आज के परिप्रेक्ष्य में ‘मानवाधिकार’ और उसकी रक्षा प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बनकर सार्वभौमिक सत्यता को जन्म दे रहा है। मानव समाज के प्रत्येक सदस्य को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दिया गया यह अधिकार अब अपने ही संरक्षण के लिए हम सभी से सहयोग की अपील करता दिखायी पड़ रहा है। समयांतर के दृष्टिकोण से ‘मानवाधिकारों’ का सम्मान एक गंभीर चिंतन का विषय बना हुआ है। परस्पर सद्भाव के द्वारा ही हम मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अपनी ओर से गारंटी दे सकते है। संपूर्ण मानवीय प्रजाति को प्रदान किये गये इस अधिकार की गहराई में जाकर चिंतन करें तो आतंकवाद और नक्सलवाद ही ‘मानवाधिकार’ के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में दिखाई पड़ रहे है। इसका दूसरा पक्ष अशिक्षा के रूप में भी समाज के समक्ष आ रहा है। भारतवर्ष के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अभाव अभी भी हमें साल रहा है। यही कारण है कि लोग शिक्षित न होने के कारण ‘मानवाधिकारों’ के हनन किये जाने पर उसका विरोध भी नहीं कर पा रहे है। अक्षर ज्ञान का अभाव ग्राम्यजनों को अधिकारों से अवगत भी नहीं होने दे रहा है। समय-समय पर ‘मानवाधिकारों’ की सुरक्षा के लिए प्रयास किये जाते रहे है। इसी तारतम्य में सन् 1975 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक प्रस्ताव पारित कर किसी भी प्रकार के उत्पीड़न की निंदा करते हुए उसे अमानवीय करार दिया गया। सन् 1993 से 2003 तक के दशक को इसी कारण नस्लवाद विरोध दशक के रूप में मनाने का निर्णय भी लिया गया।
महिला अधिकारों के संरक्षण को तवाो देते हुए सन् 1993 में एक प्रस्ताव के माध्यम से उन्हें मजबूती दी गयी। शिशु अधिकारों को बल प्रदान करने के लिए सन् 1959 तथा सन् 1989 में विशेष प्रबंध बनाये गये। जिसमें विशेष रूप से शिशु के जीवन यापन के अधिकार से लेकर उसके संरक्षण के अधिकार तक की विस्तृत चर्चा की गयी। इसी प्रकार अल्प संख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए भी महासभा ने समय-समय पर चिंतन किया है। इसके अतिरिक्त मजदूरों तथा उनके परिवारों की सुरक्षा के प्रावधान भी ‘मानवाधिकारों’ में शामिल किये गये। भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, यौन शोषण, शारीरिक उत्पीड़न, मानसिक प्रताड़ना और बलात्कार जैसे दानवों से घिरी आधी दुनिया ‘मानवाधिकारों’ की जरूरत को रेखांकित करते करते अक्सर थक सी जाती है। इन सारी समस्याओं से आगे बढ़ते हुए आदिवासियों के भू अधिकारों की समस्या और वनवासियों को उजाड़े जाने की दास्तां भी ‘मानवाधिकारों’ की चर्चा को आवश्यक और प्रासंगिक बनाती है। तमाम आदिवसी और वनवासी सैकड़ों वर्षों से वनों और उनके आसपास के इलाकों में निवास कर रहे है। इनके परंपरागत अधिकारों और ‘मानवाधिकारों’ की समुचित पहचान अभी तक नहीं की जा सकी है, और आज तक उन्हें चकबंदी, सीलिंग, पट्टे, भू अभिलेख या भूमि आबंटन का पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाया है। हैरत की बात यह है कि सभी को समान मानने वाली इस व्यवस्था की सरकार इस बात को आसानी से स्वीकार कर लेती है। इन वर्गों को अब तक वास्तविक लाभ से वंचित ही रखा गया है।
‘मानवाधिकार’ और वर्तमान में उनकी दशा पर इतनी व्यापक चर्चा किये जाने के बाद भी यह विषय अधूरा ही रह गया है। कारण यह कि मानव समाज में जो समस्याएं उपस्थित है उनसे निपटना ही ‘मानवाधिकार’ की संकल्पना का लक्ष्य है। सूखा, बाढ़, गरीबी, अकाल, सुनामी, भूकंप, युद्ध या दुर्घटनाओं के चलते जो लोग शिकार हो रहे है, पीड़ित या परेशान चल रहे है उनके ‘मानवाधिकारों’ का ध्यान रखा जाना अपेक्षित जान पड़ रहा है। इन सारे मामलों में कानून को भी सक्रिय भूमिका का निर्वहन करना होगा। विकास के साथ मानवता के आपसी रिश्तों को भी रेखांकित करना होगी न कि विकास के नाम पर किये जा रहे निर्माण के बाद लोगों को बे-घर बार कर दिया जाये? अनुकूल पर्यावरणीय स्थितियों की भी महती आवश्यकता है। ‘मानवाधिकार’ संबंधी घोषणाओं को जमीनी सच्चाईयों में बदलना होगा। जिससे ऐसी घोषणाएं महज दस्तावेजी बनकर न रह जाये। शायद इन्हीं सब बातों में ‘मानवाधिकार’ दिवस की सार्थकता भी निहित है। हमारे देश की सरकार ‘मानवाधिकार’ को लेकर सजग है, किंतु इस सजगता में और अधिक धार लाने की जरूरत है।
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